Saturday, 25 June 2016

आइये..........!!! जाने देश के IIT का हाल और उनके छात्रों की हकीकत .......................

देश के उच्च तकनीकी संस्थान IIT  और उनके छात्रों की हकीकत को बयाँ करता ......... विचारणीय लेख.......
हम इसीलिए ही तो पिछड़े हुए हैं.............हमारी शिक्षा ही हमें कुछ नया करने से रोककर, हमें रट्टू तोता बना रही है. साइंटिस्ट की बजाय क्लर्क पैदा कर रही है,,,............................... .  


क्या भारत सरकार को आईआईटी के प्रोफेसरों को स्तरीय पुस्तकें लिखने के लिए अनुदान नहीं देना चाहिए...............???   ताकि पूरे देश के छात्र लाभान्वित हों वैसे ही जिस तरह NCERT की अच्छी पुस्तकें लिखी जाती हैं।

कितने आईआईटी .................???

केंद्रीय कैबिनेट ने छः नए आईआईटी 'बनाने' के प्रस्ताव को पारित कर दिया है। किसलिये.........??? ज़ाहिर है जनसंख्या बढ़ रही है, सबके साथ सबका विकास करना है। लेकिन शोचनीय है कि क्या इस तरह से आईआईटी खोलना-- मानो आईआईटी नहीं राशन की दूकान हो गए हैं-- वास्तव में हितकर है? क्या उच्च तकनीकी शिक्षा वास्तव में सभी का अधिकार है? इस परिप्रेक्ष्य में पहले इस पर विचार करना जरूरी है कि सभी विज्ञान के छात्र जो आईआईटी में पढ़ना चाहते हैं क्या सचमुच उनके अंदर विज्ञान और तकनीक के प्रति प्रेम होता है...........???

इसका उत्तर खोजने के लिए ज्यादा दूर मत जाइए।   आपके शहर में कोचिंग संस्थान वाले इलाके में चले जाइये और उन मुरझाये चेहरों वाले बच्चों की आँखों में झाँक कर देखिये। उसमें आपको एक अजीब सी छटपटाहट और उदासीनता दिखाई देगी। उन नीरस आँखों में आईआईटी में पढ़ने का सपना तो होता है लेकिन वो आँखें विज्ञान और तकनीक में अंतर नहीं समझतीं। वो ये नहीं समझते कि 'इंजीनियरिंग' की पढ़ाई करने के बाद उन्हें बैचलर ऑफ़ टेक्नोलॉजी की डिग्री क्यों दी जाती है ................???   जबकि उनके विषय तो मौलिक विज्ञान के होते हैं। उनके सामने कोई रोल मॉडल नहीं होता....................  उन बच्चों का दिमाग स्वतंत्र रूप से सोच नहीं सकता.................    वे विज्ञान के किसी एक विषय के प्रति संवेदनशील नहीं होते ......................  जो शोधपरक मानसिकता के लिए अनिवार्य स्थिति है।

 बच्चे आईआईटी में केवल इसलिए जाना चाहते हैं ताकि वहाँ से पढ़ने के बाद उन्हें बढ़िया 'पैकेज' मिल जाए। विज्ञान के प्रति रुचि न होना और मौलिक शोध में लगातार घट रही गुणवत्ता को भारत रत्न से सम्मानित प्रो० सी एन आर राव ने करीब दस वर्ष पहले 'alarming' की संज्ञा दी थी। इस मुद्दे पर अभी नहीं तो कभी नहीं वाली रणनीति अपना कर युद्ध स्तर पर कार्य करना होगा वरना आगे चलकर देश का विकास रुक जायेगा। विकलांग 'शोध' के सहारे गतिमान विकास की कल्पना नहीं की जा सकती; R&D दोनों साथ चलते हैं।
हमारे कोचिंग के एक मास्टर साहब जब गुस्सा होते थे तो खूब खरी खोटी सुनाते थे। वे हम लोगों से कहते थे कि "सरकार की नीति है Education for all... Why education for all................???  जिसको पढ़ने में रुचि ही नहीं है उसे क्यों पढ़ाया जाता है..............???" मास्टर साहब डांटते हम लोगों को थे लेकिन दरअसल वे अनजाने में ही स्कूल स्तर की खामियाँ उजागर करते थे जिनकी वजह से बच्चों में विज्ञान तकनीक के प्रति रुचि लगभग नगण्य होती है। सन् 2014 का गणित का नोबेल कहे जाने वाले Fields Medal से सम्मानित प्रो० मन्जुल भार्गव को प्रणय रॉय ने एनडीटीवी पर बुलाया था। उस कार्यक्रम में प्रो० भार्गव ने कहा कि जब वे भारत में स्कूल में पढ़ते थे तो गणित उन्हें उबाऊ लगता था क्योंकि अध्यापक प्रश्न हल करने का प्रायः एक ही तरीका बताते थे। जब भार्गव अमेरिका गए तो वहाँ उन्होंने एक समस्या को हल करने के कई तरीके जाने क्योंकि वहाँ प्रयोग करने की खुली छूट थी।      छोटे शहरों में रहने वाले हमारे बच्चे विश्वेश्वरय्या, शांति स्वरूप भटनागर और आचार्य पी सी रे का नाम तक नहीं जानते। वे ये भी नहीं जानते कि राजा रमन्ना ने अणुशक्ति कैसे अर्जित की और सन् 2005 में प्रो० सुदर्शन को नोबेल क्यों नहीं मिला था....................???   

 अब तो मौलिक विज्ञान के उच्च शिक्षण संस्थानों जैसे कि भारतीय विज्ञान संस्थान में भी इंटर के बाद अच्छी स्कॉलरशिप के साथ सीधा प्रवेश मिलता है। आईआईटी के अलावा NISER, UM DAE CBS, IISER, प्रशांत चन्द्र महालानोबिस द्वारा स्थापित Indian Statistical Institute तथा मद्रास में Chennai Mathematical Institute के बारे में अधिकांश छात्रों को जानकारी ही नहीं होती..............!!! 

आईआईटी में पढ़ने की ललक एक अजीब सी भेड़चाल है जो आविष्कार और नवोन्मेष का बीज पनपने ही नहीं देती। एक विचित्र सा ट्रेंड और देखने को मिलता है कि आईआईटी में पढ़ने वाले लोग विज्ञान तकनीक से इतर कई सारे शौक पाल लेते हैं। कोई लेखक बन जाता है तो बहुत से लोग तो ऐसे भी हैं जो आईआईटी जैसे संस्थान में पढ़ने के बाद अध्यात्म की तरफ मुड़ जाते हैं।     

ऐसे समय में जब देश को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में उच्च स्तरीय cutting edge technology की जरूरत है उस समय हम ये देखते हैं कि नई ऊँचाइयों पर पहुँचते इसरो तथा परमाणु ऊर्जा विभाग के अधिकांश वैज्ञानिकों की शैक्षणिक पृष्ठभूमि आईआईटी की नहीं है। सेना के लिए तकनीकी दक्षता का निर्माण करने वाले DRDO की तरफ कोई भी आईआईटीयन देखना भी नहीं चाहता।     यहाँ कारण भिन्न है किंतु कारक वही है-- शोध में रुचि न होना।      प्रसिद्ध रक्षा विशेषज्ञ व अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार स्टीफेन कोहेन ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक Arming without Aiming में लिखा है कि भारत में उच्च तकनीकी शिक्षा के संस्थानों में राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा विज्ञान जैसे विषय पढ़ाये जाने चाहिए ताकि तकनीक के साथ मौलिक रणनीतिक-सामरिक विचार भी विकसित हो सकें।     आईआईटी से निकले बहुत कम छात्र पीएचडी करने के बारे में सोचते हैं। उनमें से भी बहुत कम भारत में रहकर पीएचडी करना चाहते हैं।    कुछ साल पहले का ही आंकड़ा है कि आईआईटी कानपुर के मात्र 60 प्रतिशत पीएचडी छात्र इस बात से सन्तुष्ट थे कि वे आईआईटी से पीएचडी कर रहे हैं जिसके बाद उन्हें नौकरी मिल जायेगी। इनमें से अधिकांश छात्र वे हैं जिन्होंने आईआईटी से बैचलर या मास्टर नहीं किया था।       

आईआईटी मद्रास जैसे संस्थानों में पंच वर्षीय मानविकी के कोर्स चलाना एक बेमतलब का काम है जो संभवतः इस तरफ इशारा करता है कि आईआईटी में वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर कोई भी कोर्स चलाने की इजाजत है परन्तु आईआईटी से निकले छात्र समाज को क्या देंगे ................???   इसका उत्तरदायित्व किसी पर नहीं है।

 विश्व के आधुनिकतम तकनीकी शिक्षण संस्थानों में आईआईटी की रैंकिंग कहीं नहीं है ...................???   यह भी एक जाना पहचाना सत्य है। इसकी पुष्टि करना बड़ा आसान है। आप मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट (MIT) की वेबसाइट पर चले जाइये आपको बड़ी बड़ी तस्वीरें दिख जाएंगी जो उनके द्वारा किये गए उच्च स्तरीय शोध एवं विकास का प्रतिफल हैं। वहीँ आईआईटी की किसी भी वेबसाइट को खोलिए तो ऐसा लगेगा जैसे आयकर विभाग या जीवन बीमा निगम का पोर्टल खुल गया हो और रिटर्न भरने की आखिरी तारीख बार बार सामने आएगी।

नए आईआईटी की दशा का अवलोकन करने से पहले उन पाँच आईआईटी के इतिहास को टटोलना आवश्यक है जो सन् '51 से '63 के बीच स्थापित किये गए थे। इन्हीं में से एक है कानपुर आईआईटी जिसकी स्थापना 1959 में की गयी थी। जर्मन मूल के वैज्ञानिक प्रो० एरविन क्रेज़िग की एक बहुत प्रसिद्ध पुस्तक है Advanced Engineering Mathematics जो बी टेक में पढ़ाई जाती है। आज इस पुस्तक का शायद ग्यारहवां संस्करण आ चुका है किन्तु कुछ साल पहले मेरे हाथ इसका पहला विदेशी संस्करण लगा था जो सन् '64 का प्रिंट है। इस पुस्तक पर एक मुहर छपी है जिसमें लिखा है कि ये पुस्तक "कानपुर इंडो-अमरीकन प्रोग्राम" के तहत USAID द्वारा आईआईटी कानपुर के छात्र को बेहद कम कीमत पर दी गयी है। यह KIAP प्रोग्राम सम्भवतः उन प्रारंभिक अमरीकी सहयोग में से एक था जो भारत को वैज्ञानिक संस्थानों के निर्माण के लिए दिया गया था। आईआईटी हमेशा से प्रतिष्ठित रहे हैं,     लेकिन ब्रांड आईआईटी का नाम उस समय सबसे ज्यादा सुना गया था,....... जब इस देश में संचार क्रांति आई थी।       आदरणीय अटल जी की सरकार ने सबके हाथ में मोबाइल दे दिया था और दिल्ली से लेकर बेंगलुरु तक कॉल सेंटर खुल गए थे। इनफ़ोसिस सरीखी कम्पनियां कैम्पस में बस लेकर आती थीं और आईआईटी के स्नातकों को भर कर ले जाती थीं। इस तरह हम देखते हैं कि आईआईटी को ब्रांड आईआईटी 'बनने' में पचास साल से अधिक का समय लगा। जिस तरह रोम एक दिन में नहीं बना था उसी तरह केवल धन आवंटित कर देने मात्र से ही आईआईटी नहीं बन सकता..................!!!

किसी भी शिक्षण संस्थान में पढ़ाई पुस्तकों से होती है,....... ज्ञान आसमान से नहीं टपकता ..................
 स्तरीय पाठ्य पुस्तकें राष्ट्र निर्माण में अहम योगदान देती हैं।       दुर्भाग्य से हमारे देश में उच्च विज्ञान तकनीकी की पुस्तकें लिखने वाले बहुत कम लेखक हैं और ज्यादातर छात्र विदेशी लेखकों की पुस्तकें दशकों से पढ़ते आ रहे हैं।    जो लिखते भी हैं वे उन्हीं पुराने स्थापित विदेशी विशेषज्ञों की किताबों में हेर फेर कर के दोयम दर्जे का साहित्य उपलब्ध कराते हैं। इस तरह मौलिक वैज्ञानिक विचार पनपते ही नहीं हैं।     सन् '45 में हिरोशिमा नागासाकी पर बम गिराने के बाद मैनहट्टन परियोजना से सम्बंधित अधिकांश वैज्ञानिकों को साठ के दशक में अमरीकी सरकार तथा प्रकाशकों ने भारी अनुदान दिए ताकि स्तरीय पाठ्य पुस्तकें लिखी जाएँ। भौतिकी, रसायन, गणित और अभियांत्रिकी पर ढेरों कालजयी पुस्तकें लिखी गयीं जिन्हें आज भी भारत समेत पूरे विश्व में पढ़ा जाता है।     सभी प्रोफेसर National Science Foundation के book development program के तहत मिलने वाले अनुदान की संख्या का उल्लेख अपने द्वारा लिखी गयी पुस्तक में करते हैं। जनवरी सन् 2007 से पुस्तकों की ISBN संख्या 13 अंकों की हो गयी थी। उससे दो तीन साल पहले से ही भारत में अमरीकी प्रकाशकों की बाढ़ सी आ गयी थी।     उन प्रकाशकों ने कम लागत पर कागज़ की गुणवत्ता घटा कर reprints निकालना शुरू किया।       इंजीनियरिंग अथवा गणित की जो किताब डॉलर के हिसाब से 5000₹ की बिकती थी अब वही 300 से 500 में मिलने लगी। अब तो इतना व्यापक बाज़ार खड़ा हो चुका है कि गिने चुने भारतीय विद्वान जो वास्तव में पाठ्य पुस्तक लिखना चाहते हैं,............... वे अपने अस्तित्व के लिए विदेशी प्रकाशकों पर निर्भर हैं।  

क्या भारत सरकार को आईआईटी के प्रोफेसरों को स्तरीय पुस्तकें लिखने के लिए अनुदान नहीं देना चाहिए ,...................???    ताकि पूरे देश के छात्र लाभान्वित हों   ..........   वैसे ही      जिस तरह NCERT की अच्छी पुस्तकें लिखी जाती हैं।      क्या हम आज़ादी के सत्तर साल बाद भी कम से कम किताबें लिखने में स्वावलंबी नहीं हो सकते........??? 
विदेशी विश्वविद्यालयों का कैंपस अपने देश में खोलने की बात भी जोर पकड़ रही है।   ये वैसे ही होगा जैसे साठ के दशक की किताबों का reprint edition; जबकि हमें तकनीक के क्षेत्र में आधुनिक विचार प्रणाली विकसित करनी है।    इससे तो अच्छा होता कि विदेशी विश्वविद्यालयों की तर्ज पर History of Science या Philosophy of Science के विभाग खोले जाते जहाँ कम से कम उन्नीसवीं सदी से बीसवीं सदी तक भारत में हुई वैज्ञानिक उपलब्धियों पर शोध होता और इन विषयों पर उपलब्ध साहित्य अकादमिक जगत में प्रेरणा का काम करता।       इस बात पर देश के नीति नियन्ता सोचें कि हम एक संस्थान की स्थापना से लेकर कैंपस प्लेसमेंट तक के लिए विदेशी सहायता पर निर्भर क्यों हैं .................???   और कब तक रहेंगे.............???  
मनमोहन सिंह की सरकार में जो आईआईटी खोले गए उनकी दशा अभी भी दयनीय है ऐसे में नए आईआईटी खोलने से देश को क्या .........???   और कितना लाभ होगा ...............???   नीति निर्धारकों इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। विज्ञान प्रौद्योगिकी के उच्च शिक्षण संस्थान की स्थापना,...... हलुआ पूड़ी नहीं है साहब।     उन संस्थानों में एक मज़बूत राष्ट्र का निर्माण करने वाले रंगरूट तैयार होते हैं।       देश की आर्थिक गति में प्रगति किस तरह से आये इसकी अभिकल्पना अभियांत्रिकी से सृजित होती है क्योंकि धरातल पर वही संरचनाएँ मूलभूत ढाँचे के रूप में प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं।     ये शिक्षा के विशिष्ट मन्दिर हैं।     यहाँ प्राण प्रतिष्ठा मन्त्रों से नहीं उद्यम से की जाती है तथा दर्शन का लाभ भी उन्हें ही मिलना चाहिए जो सर्वथा इसके पात्र हों................













Yashark Pandey

No comments:

Post a Comment